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हे मेरे भारत भाग्य विधाता

हे मेरे भारत भाग्य विधाता! आज मैं आपका छोटा नाम रख रहा हूं। मुझे अनेकों जगह आपको पुकाराना होगा। अतः इसके लिए भारत भाग्य विधाता एक लम्बा नाम है। अगर मैं आपको विधाता बोलूं तो इसका अर्थ परमात्मा होगा तथा आपके अन्दर भी परमात्मा है, अतः यह सही होगा। अगर मैं आपको विधाता बोलूं तो इसका अर्थ परमात्मा होगा तथा आपके अन्दर भी परमात्मा है, अतः यह सही होगा। तीसरा महत्वपूर्ण छोटा नाम है भारत। मुझे यह नाम काफी अच्छा लग रहा है, क्योंकि अब आपसे मुझ जैसा साधारण मनुष्य भी बातचीत कर सकता है तथा पत्र लिख सकता है। मेरी क्षमता इतनी नहीं है कि मैं विधाता को सीधे खत लिख सकूं एवं अनेकों बार ‘‘भाग्य से ज्यादा एवं समय से पहले, किसी को कुछ नहीं मिलता है’’ सुनने के बाद भी मेरे अन्दर कहीं न कहीं कर्तापन बैठा है। मुझे लगता है कि जब तक मैंने पूरी कोषिष नहीं की तब तक मैं कैसे कह सकता हूं कि ‘‘भाग्य से ज्यादा एवं समय से पहले, किसी को कुछ नहीं मिलता है’’। मुझे लगता है कि इस वाक्य को पूरी को कोशिश करने से पहले दोहराना उस परमात्मा के प्रति अपमान करना होगा, जिसने हमें यह मानव तन दिया है तथा इतनी स्वतंत्रता दी है कि हम चाहें तो सम्राट अशोक जैसे, अनेकों हत्याओं के लिए जिम्मेदार होने बाद भी, अपने कर्मों से महान बन सकते हैं। परमात्मा ने सबसे बडी सम्पदा जो मनुष्य को प्ऱदान की है वह चुनाव करने की स्वतन्त्रता है। हमें पूरी छूट है कि हम बुद्धिमान बनना चाहते हैं या बेवकुफों की तरह मर जाना चाहते हैं। हम सच्चा बनना चाहते हैं या झूठ की चादर में सत्य को छुपा के इस दुनिया से बिदा होना चाहते हैं। हम मानवतावादी बनना चाहते हैं या अपना सम्पूर्ण अमूल्य जीवन मात्र अपने पागलपन के उपर समर्पित कर के इस दुनिया से रूखसत करना चाहते हैं। इस प्रकार मैं आपका नाम भारत रखता है। इस नाम से मैं आप सभी को सीधे ख़त लिख सकता हॅू, चाहे आप किसी जाति या धर्म अथवा किसी उम्र के हों। यहां आपका पुरूष या स्त्री होना भी अर्थहीन हो जायेगा। आपको मुझ बालक की प्रेमपूर्ण आवाज़ सुननी पडेगी।


हमारे सामने भारत देश के सामाजिक स्थिति आइने की तरह स्पष्ट है और हम हर पल अपना चेहरा इस आइने में देखते है। सामाजिक स्थिति पर आगे लिखने से पूर्व हम एक पहेली को हल करते है। उसके बाद पुनः सामाजिक मनोदषा का वर्णन करेंगे। किसी को पूरी तरह से उलझाना हो तो उसके सामने एक यक्ष प्रश्न देते हैं कि ’बतलाओं पहले मुर्गी हुई या अण्डा’। इस पहेली में सबसे ज्यादा बेचारे बच्चे फंसते है। कोई तर्क देता है कि पहले मुर्गी हुई, क्योंकि मुर्गी से ही अंडा मिलता है और कोई कहता है कि पहले अंडा हुआ, क्योंकि अंडे से ही मुर्गी बाहर निकलती है।आप ठीक सोच रहे हैं कि यहां सामाजिक स्थिति में मुर्गी एवं अंडे बीच में कहां से आ गए है? कहीं अंडा का फंडा वाली बात तो नहीं होने वाली है।


आपका सोचना एकदम सही है क्योंकि यहां एक महत्वपूर्ण सामाजिक प्रश्नमेरे दिमाग में है जो हमारे जीवन का पैमाना होगा एवं उसकी मदद से हम अपनी सामाजिक स्थिति को मानवतावादी बना सकते है। यह सामाजिक पैमाना निम्न प्रकार हैः- ‘‘मनुष्य पहले अथवा मनुष्य की जाति, धर्म या देश।’’हमारी मानवतावादी दृष्टिकोण केवल इस पैमाने पर निर्भर करती है क्योंकि जितना ज्यादा हमारे मन में मनुष्य पहले होगा, उतना ही ज्यादा मात्रा में हम मानवतावादी होंगे।दूसरी तरफ हमारे मन में किसी मनुष्य की जाति या उसका धर्म या उसका देश पहले होगा। इतना ही ज्यादा हम सत्य से दूर होंगे। इस सामाजिक पैमाने से हमारे सम्पूर्ण आतंरिक व्यक्तित्व का पता चलेगा। इससे हमें ज्ञात होगा कि हमने जीवन को कितनी गहराई से देखा है तथा इससे हमारे अपने पागलपन के बारे में भी जानकारी प्राप्त होगी। पागलपन के बारे में आप अवश्य जानते है। पागलपन जिसके अन्दर जितना ज्यादा होता है वह व्यक्ति उतना ज्यादा सत्य से दूर होता है एवं मन में बैठी हुई बात को ही सत्य मानता रहता है। उदाहरण के लिए- यदि किसी व्यक्ति के मन में आग बैठ गयी है तथा वह पागल हो गया है, तो उसे हर पल चारों तरफ आग ही आग दिखाई पडेगी। वह समुन्द्र के किनारे भी होगा तो समुन्द्र की लहरे भी उसे आग की लपटें दिखेंगी।मानव जीवन की सबसे कष्टदायी यात्रा है कि ‘‘मानव की दृष्टि मानवतावादी हो जाए’’ अर्थात ‘‘मनुष्य, मनुष्य को, मनुष्य की तरह देखने लगे’’ यह सबसे ज्यादा कठिन कार्य है। ‘‘मनुष्य, मनुष्य को, मनुष्य की तरह देखने लगे’’ यह एक हास्यास्पद और सबसे ज्यादा सत्य वाक्य है। आज चारों तरफ हमें यही दिखता है कि मनुष्य, मनुष्य को पैसों, प्रतिष्ठा, जाति, धर्म, देश इत्यादि अनेकों सामाजिक पैमानों से देखता है। उसे प्रत्येक व्यक्ति में मनुष्य कम तथा अपनी आवष्यकता पूर्ति के साधन ज्यादा दिखते हैं।


इसकी मनोवैज्ञानिक पहलू मुझे बचपन की ओर ले जा रही है। बचपन में जब दो बच्चे झगडते हैं तो उनके बीच तर्क कुछ इस प्रकार से होता है। पहला बच्चा-मेरे पास मम्मी हैं, पापा हैं, दादा है, दादी हैं तथा तुम्हारे पास क्या है? दूसरा बच्चा- मेरे पास मम्मी हैं, पापा हैं, दादा हैं,. ........ इसके बाद दूसरा बच्चा सोच में पड जाता है क्योंकि उसकी दादी का देहान्त हो चुका है। बस फिर क्या, पहले बच्चे की जीत हो जाती है और दूसरा बच्चा एक गहरे दुःख से भर जाता है। इसी प्रकार का तर्क हमारे मन में चलता रहता है। हमें ऐसा लगता है कि तुम मनुष्य हो तो हम भी मनुष्य है; फिर तुम्हें मनुष्य की तरह क्यों देखा जाए, कुछ विषेश बात हो तो बोलों? तुम्हारी जाति क्या है? तुम्हारा धर्म क्या हैं? तुम करते क्या हो? तुम्हारे पास जमीन जायदात कितनी है? तुम किस देश या राज्य के रहने वाले हो? इत्यादि-इत्यादि..................


तर्क तक तो बात एकदम सही है, परन्तु सत्य के लिए एकदम उल्टी है। सत्य यह है कि वह मनुष्य है, उसके अन्दर भी वही सभी बातें हैं जो हमारे अन्दर है। उसी प्रकार की समरूपता, जैसे की हमारे शरीर की है। उसी प्रकार का मन, जैसा की हमारा मन है। ठीक उसी परमात्मा का अंश, जैसा कि हममें है। तार्किक रूप से अलग-अलग देखने पर हमारी सामाजिक दृष्टि एकदम सही है। परन्तु सत्य रूप में हमारी दृष्टि 180 डिग्री पर है अर्थात् एकदम उलटी है। जब हमारी दृष्टि मानवतावादी होगी तो हमें प्रत्येक मनुष्य के भावनात्मक पहलू का ध्यान होगा। धीरे-धीरे हमारे अन्दर सहानुभूति, मदद करने की भावना तथा दूसरों के सुविधाओं का ख्याल होगा। तब धीरे-धीरे हमारी आत्मा-परमात्मा के रूप में होने लगेगी अर्थात् हमारे अन्दर जो परमात्मा का छोटा अंश है वह विराट होने लगेगा।


हे भारत! आपको ज्ञात है कि ईष्वर एक है तथा उसने अपने प्रियजनों को जो मानवतावादी दृष्टि रखते थे व जो मनुष्य को, मनुष्य की तरह देखते थे, को यह अधिकार दिया कि उस समय की स्थिति के अनुसार जहां तक बन सके अधिकाधिक लोगों का कल्याण करें ताकि लोग सत्य मार्ग अपना सकें।


हे भारत! आप देख सकते हैं कि कैसे हम मनुष्य को, मनुष्य की तरह न देखकर, उसके धर्म के तरह देखते हैं। हमारे लिए मनुष्य का मनुष्य होना महत्वपूर्ण न होकर उसका धर्म महत्वपूर्ण है। उदाहरण के लिए- यदि उसका सम्बन्ध हमारे धर्म से है तो हम उसके किसी भी अत्याचार, जैसे-हत्या, चोरी इत्यादि के बावजूद भी उसे अपना मान लेंगें। दूसरी तरफ यदि कोई कितना भी मानवतावादी दृष्टिकोण रखता हो उसे इसलिए पराया मान लेगें क्योंकि उसका सम्बन्ध किसी और धर्म से है। मुझे लगता है कि हमारा सम्बन्ध किसी धर्म से तब ही हो सकता है जब हमारी दृष्टि मानवतावादी हो अर्थात् हम मनुष्य को, मनुष्य की तरह देखते हों। अन्यथा हमें यह कहने का भी अधीकार नहीं है कि हमारा सम्बन्ध अमुक धर्म से है। अनेकों धर्म तो सिर्फ परमात्मा की राहों जैसे हैं जिस पर चल कर हम उस विराट परमात्मा को प्राप्त कर सकते हैं, जिसका छोटा सा अंष हमारे अंदर विद्यमान है। याद रखेंः-यदि हमारी दृष्टि मनुष्य को, मनुष्य की तरह देखती है तब ही हमारा संबंध किसी सामाजिक धर्म से है। आपका प्रश्न- यदि हमारी दृष्टि मनुष्य को, मनुष्य की तरह देखती है परन्तु हमारा संबंध किसी सामाजिक धर्म से नहीं है तो इस अवस्था को क्या कहेंगें? यहां हमारा जवाबः- यदि हमारी दृष्टी मनुष्य को, मनुष्य की तरह देखती है परन्तु हमारा संबंध किसी सामाजिक धर्म से नहीं है तो इस अवस्था का अर्थ है कि हमारा संबंध सीधे परमात्मा से है।

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